एट्रोसिटी एक्ट में फंसे ग्रामीण 17 वर्ष मुकदमा लड़कर दोषमुक्त हुए

०० पुलिस ने रिपोर्टकर्ता के खिलाफ पेश शिकायत की जांच नहीं की थी

बिलासपुर। हाईकोर्ट ने बैठक के दौरान एक अनुसूचित जाति वर्ग के विरूद्ब कथित रूप से आपत्तिजनक शब्द का उपयोग करने के मामले में एट्रोसिटी एक्ट के तहत पेश प्रकरण में विश्ोष न्यायाधीश एट्रोसिटी द्बारा सुनाई गई सजा को रद्द करते हुए ग्रामीणों को बरी किया है। विश्ोष न्यायाधीश ने 2008 में अपीलकर्ताओं को अर्थदंड की सजा सुनाई थी।

अभियोजन पक्ष की कहानी यह है कि शिकायकर्ता लखन लाल कुर्रे ने 22.09.2007 को अपराह्न लगभग 03.20 बजे पुलिस थाना – भखारा जिला धमतरी में एक लिखित रिपोर्ट दर्ज कराई कि वह 17.09.2007 को अपराह्न 01.00 बजे ग्राम जोरातराई में एक बैठक में भाग लेने गया था। बैठक में दानी राम, लखन लाल सेन व महेश उर्फ महेन्द्र कुमार साहू ने उसे घेर लिया और माँ-बहन की गालियाँ देते हुए जातिसूचक शब्द कहे, जिससे वह बेहोश हो गया। यदि रामस्वरूप साहू ने हस्तक्षेप नहीं किया होता, तो आरोपी उसकी हत्या कर देते।  इस लिखित रिपोर्ट के आधार पर, पुलिस ने आरोपियों के विरुद्ध भारतीय दंड संहिता की धारा 254, 5०6, 323 (34) और अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम की धारा 3 (1) (10) के अंतर्गत प्राथमिकी दर्ज की। विश्ोष न्यायाधीश ने 10 नवंबर 2008 को धारा 294 आईपीसी के तहत प्रत्येक को 500/- रुपये का जुर्माना अदा न करने पर 1 महीने सजा, भारतीय दंड संहिता की धारा 323/34 के अंतर्गत प्रत्येक को 1,000/- रुपये का जुर्माना अदा करना होगा, जुर्माना अदा न करने पर 2 महीने के लिए कैद की सजा भुगताने का आदेश दिया। इसके खिलाफ आरोपियों ने हाईकोर्ट में अपील पेश की।

2008 में पेश अपील पर हाईकोर्ट ने 14 नवंबर 2025 को निर्णय पारित किया।

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कोर्ट ने अपने आदेश में कहा

गवाही से यह स्पष्ट है कि अभिलेखों में ऐसा कोई साक्ष्य नहीं है कि अपीलकर्ताओं का कृत्य दूसरों को परेशान करने वाला था, और शिकायतकर्ता ने स्वयं अश्लील शब्दों के बारे में कुछ नहीं कहा था और अपनी लिखित शिकायत में उसने केवल यह आरोप लगाया था कि बैठक में उपस्थित ग्रामीणों ने उसे जातिगत गालियाँ दीं, जो अश्लील शब्दों कृत्य के दायरे में नहीं आता, लेकिन निचली अदालत ने इन सभी तथ्यों को सही परिप्रेक्ष्य में नहीं देखा। गवाहों में कई विरोधाभास हैं। शिकायतकर्ता लाखन के बयान में चूक और अतिशयोक्ति पाई गई है। अपीलकर्ताओं का बचाव जांच अधिकारी की गवाही द्बारा विधिवत समर्थित है कि सभी ग्रामीणों ने शिकायतकर्ता के खिलाफ शिकायत की थी, लेकिन जांच अधिकारी ने बचाव पक्ष की शिकायत पर कोई जांच नहीं की, लेकिन ट्रायल कोर्ट ने शिकायतकर्ता और बचाव पक्ष के गवाहों के बयान का उचित मूल्यांकन नहीं किया और विपरीत निष्कर्ष दर्ज किया। इसके साथ हाईकोर्ट ने अपीलकर्ताओं कोे दोषमुक्त करते हुए निचली अदालत के आदेश को रद्द किया है।

kamlesh Sharma

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